आवाहयामी आवाहयामी,
आवाहयामी आवाहयामी।।
दिर्घोष देवां परीपूर्ण सिन्धुं,
ज्ञानेव रुपं पारीचिन्तयामी।
सिन्धु वतां पूर्ण मदैव तुभ्यं,
गुरुत्वं शरण्यं गुरुत्वं शरण्यं।।
न जानामी पूजां न जानामी ध्यानं,
न जानामी वेदो न च वेद वाक्यं।
न जानामी तिर्थो न ध्यानं न चैवं,
एकोही मन्त्रं गुरुत्वं शरण्यं।।
न तातो न माता न बन्धु र्न भ्राता,
न पुत्रो न पुत्री न भ्रित्योर न भर्ता।
न जाया न वित्तं न ब्रितिर्ममेवं,
त्वमेवं शरण्यं त्वमेवं शरण्यं।।
त्वं ब्रह्म रुपं रुद्र स्वरुपं,
बिष्णु स्वरुपं देव स्वरुपं।
आत्म स्वरुपं ब्रह्म स्वरुपं,
गुरुत्वं शरण्यं गुरुत्वं शरण्यं।।
आवाहयामी परीपूर्ण सिन्धुं,
त्वमेवं सदाहं परीपश्र्वरुपं।
आवाहयामी गुरुवे वदन्तं,
त्वमेवं शरण्यं त्वमेवं शरण्यं।।
शिशुमेव रुपं न ज्ञानं न ध्यानं,
एकोही चिन्त्यं भगवतस्वरुपं।
आवाहयामी मम प्राण रुपं,
त्वमेवं शरण्यं त्वमेवं शरण्यं।।
आवाहयामी आवाहयामी,
आवाहयामी आवाहयामी।।